शुल्बसूत्र
शुल्ब सूत्रों का उद्देश्य
शुल्बसूत्र, श्रौतसूत्रों के भाग हैं ; स्रौतसूत्र, वेदों के उपांग (appendices) हैं। शुल्बसूत्र ही भारतीय गणित के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले प्राचीनतम स्रोत हैं।
विभूतिभूषण दत्त के अनुसार, प्राचीनतम भारतीय गणित में ज्यामिति के लिए 'शुल्बविज्ञान' शब्द का प्रयोग किया जाता था।
शुल्ब सूत्रों की सूची
निम्नलिखित शुल्ब सूत्र इस समय उपलब्ध हैं:
- आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र
- बौधायन शुल्ब सूत्र
- मानव शुल्ब सूत्र
- कात्यायन शुल्ब सूत्र
- मैत्रायणीय शुल्ब सूत्र (मानव शुल्ब सूत्र से कुछ सीमा तक समानता है)
- वाराह (पाण्डुलिपि रूप में)
- वधुल (पाण्डुलिपि रूप में)
- हिरण्यकेशिन (आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र से मिलता-जुलता)
शुल्बसूत्रों में गणित
बौधायन प्रमेय (पाइथागोरस प्रमेय)
पाइथागोरीय त्रिक
आपस्तम्ब ने यज्ञ-वेदी में समकोण बनाने के लिए निम्नलिखित त्रिकों का उपयोग करने की सलाह दी है। आजकल इन त्रिकों को 'पाइथागोरीय त्रिक' कहते हैं।
ज्यामिति
बौधायन शुल्बसूत्र में वर्ग, आयत आदि ज्यामितीय रूपों की रचना की विधि बताई गयी है। इसमें एक ज्यामितीय आकार के क्षेत्रफल के समान क्षेत्रफल वाला दूसरा ज्यामितीय आकार बनाने की वियाँ भी दी गयीं है, जिनमें से कुछ ठीक-ठीक (परिशुद्ध) क्षेत्रफल की न होकर 'लगभग बराबर' क्षेत्रफल की होतीं हैं। इन विधियों में प्रमुख विधियाँ ये हैं- वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले आयत, समद्विबाहु समलम्ब चतुर्भुज, समद्विबाहु त्रिभुज, समचतुर्भुज, तथा वृत्त की रचना करना; वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले वर्ग की रचना । इन ग्रन्थों में सन्निकट क्षेत्रफल रूपान्तर के साथ साथ अधिक परिशुद्ध क्षेत्रफल रूपान्तर भी दिए गये हैं। उदाहरण के लिए, बौधायन ने वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले वृत्त की रचना के लिए यह सूत्र दिया है-
- चतुरश्रं मण्डलं चिकीर्षन्नक्ष्णयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत् । यदतिशिष्यतेतस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्
- If it is desired to transform a square into a circle, [a cord of length] half the diagonal [of the square] is stretched from the centre to the east [a part of it lying outside the eastern side of the square]; with one-third [of the part lying outside] added to the remainder [of the half diagonal], the [required] circle is drawn.
इसी प्रकार, वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले वर्ग की रचना करने के लिए, निम्नलिखित विधि बतायी गयी है।
- मण्डलं चतुरश्रं चिकीर्षन्विष्कम्भमष्टौ भागान्कृत्वा भागमेकोनत्रिंशधा विभज्याष्टाविंशतिभागानुद्धरेत् । भागस्य च षष्ठमष्टमभागोनम्
- 2.10. To transform a circle into a square, the diameter is divided into eight parts; one [such] part after being divided into twenty-nine parts is reduced by twenty-eight of them and further by the sixth [of the part left] less the eighth [of the sixth part].
- अपि वा पञ्चदशभागान्कृत्वा द्वावुद्धरेत् । सैषानित्या चतुरश्रकरणी
- 2.11. Alternatively, divide [the diameter] into fifteen parts and reduce it by two of them; this gives the approximate side of the square [desired].
उपरोक्त 2.9 तथा 2.10 के अनुसार π का मान 3.088 निकलता है, जबकि 2.11 के अनुसार π का मान 3.004 आयेगा।
२ का वर्गमूल
आपस्तम्ब शुल्बसूत्र में निम्नलिखित श्लोक २ का वर्गमूल का सन्निकट मान बताता है-
- समस्य द्विकरणी।
- प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत्तच्च चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः।
- वर्ग का विकर्ण (समस्य द्विकरणी) - इसका मान (भुजा) के तिहाई में इसका (तिहाई का) चौथाई जोड़ने के बाद (तिहाई के चौथाई का) ३४वाँ अंश घटाने से प्राप्त होता है।
दूसरे शब्दों में,
आर्यभट
पुणे में आर्यभट्ट की मूर्ति ४७६-५५०जन्म ४७६
कुसुमपुर (पाटलिपुत्र)पटना,भारतदेहांत ५५०(उम्र ७३-७४) युग गुप्त काल मुख्य रुचियाँ गणित,खगोल शास्त्र, उल्लेखनीय विचार "π" का अन्वेषण, सूर्य और चंद्रग्रहण का विस्तार ,चन्द्रमा पर प्रकाश का प्रतिबिब मुख्य कृतियाँ आर्यभटीय,आर्यभट्ट सिद्धांत आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। इनकी उत्पत्ति भट्ट ब्रह्मभटट ब्राह्मण समुदाय में मानी जाती है.
आर्यभट का जन्म-स्थान
यद्यपि आर्यभट के जन्म के वर्ष का आर्यभटीय में स्पष्ट उल्लेख है, उनके जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्मक के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है, हालाँकि आरंभिक बौद्ध ग्रन्थ अश्माका को दक्षिण में, दक्षिणापथ या दक्खन के रूप में वर्णित करते हैं, जबकि अन्य ग्रन्थ वर्णित करते हैं कि अश्माका के लोग अलेक्जेंडर से लड़े होंगे, इस हिसाब से अश्माका को उत्तर की तरफ और आगे होना चाहिए।
एक ताजा अध्ययन के अनुसार आर्यभट, केरल के चाम्रवत्तम (१०उत्तर५१, ७५पूर्व४५) के निवासी थे। अध्ययन के अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था जो कि श्रवणबेलगोल के चारों तरफ फैला हुआ था और यहाँ के पत्थर के खम्बों के कारण इसका नाम अस्मका पड़ा। चाम्रवत्तम इस जैन बस्ती का हिस्सा था, इसका प्रमाण है भारतापुझा नदी जिसका नाम जैनों के पौराणिक राजा भारता के नाम पर रखा गया है। आर्यभट ने भी युगों को परिभाषित करते वक्त राजा भारता का जिक्र किया है- दसगीतिका के पांचवें छंद में राजा भारत के समय तक बीत चुके काल का वर्णन आता है। उन दिनों में कुसुमपुरा में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जहाँ जैनों का निर्णायक प्रभाव था और आर्यभट का काम इस प्रकार कुसुमपुरा पहुँच सका और उसे पसंद भी किया गया।
हालाँकि ये बात काफी हद तक निश्चित है कि वे किसी न किसी समय कुसुमपुरा उच्च शिक्षा के लिए गए थे और कुछ समय के लिए वहां रहे भी थे। भास्कर I (६२९ ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में वे वहां रहा करते थे। यह वह समय था जिसे भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, विष्णुगुप्त के पूर्व बुद्धगुप्त और कुछ छोटे राजाओं के साम्राज्य के दौरान उत्तर पूर्व में हूणों का आक्रमण शुरू हो चुका था।
आर्यभट अपनी खगोलीय प्रणालियों के लिए सन्दर्भ के रूप में श्रीलंका का उपयोग करते थे और आर्यभटीय में अनेक अवसरों पर श्रीलंका का उल्लेख किया है।
कृतियाँ
आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- आर्यभट सिद्धांत। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया। आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कींं।
उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं।
आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर I. ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाकार.
एक तीसरा ग्रन्थ जो अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है, अल न्त्फ़ या अल नन्फ़ है, आर्यभट के एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका संस्कृत नाम अज्ञात है। संभवतः ९ वी सदी के अभिलेखन में, यह फारसी विद्वान और भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।
वराह मिहिर
वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे।
उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक देते हैं। वरःमिहिर का मुख्य उद्देश्य गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ना था। वस्तुतः ऋग्वेद काल से ही भारत की यह परम्परा रही है। वरःमिहिर ने पूर्णतः इसका परिपालन किया है।
जीवनी
वराहमिहिर का जन्म सन् 505 ई. में एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। यह परिवार उज्जैन में शिप्रा नदी के निकट कपित्थ (कायथा) नामक गांव का निवासी था। उनके पिता आदित्यदास सूर्य भगवान के भक्त थे। उन्हीं ने मिहिर को ज्योतिष विद्या सिखाई। कुसुमपुर (पटना) जाने पर युवा मिहिर महान खगोलज्ञ और गणितज्ञ आर्यभट्ट से मिले। इससे उसे इतनी प्रेरणा मिली कि उसने ज्योतिष विद्या और खगोल ज्ञान को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया। उस समय उज्जैन विद्या का केंद्र था। गुप्त शासन के अन्तर्गत वहां पर कला, विज्ञान और संस्कृति के अनेक केंद्र पनप रहे थे। वराह मिहिर इस शहर में रहने के लिये आ गये क्योंकि अन्य स्थानों के विद्वान भी यहां एकत्र होते रहते थे। समय आने पर उनके ज्योतिष ज्ञान का पता विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय को लगा। राजा ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में शामिल कर लिया। मिहिर ने सुदूर देशों की यात्रा की, यहां तक कि वह यूनान तक भी गये। सन् 587 में महान गणितज्ञ वराहमिहिर की मृत्यु हो गई।
कृतियाँ
550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।
पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं : पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत। वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का भी निर्देश किया है, जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें। इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता नामक तीन ग्रंथ भी लिखे हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं।
अपनी पुस्तक के बारे में वराहमिहिर कहते है:
- ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं कर सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढ़ेगा वह उसे पार ले जायेगी।
यह कोरी शेखी नहीं थी। इस पुस्तक को अब भी ग्रन्थरत्न समझा जाता है।
त्रिकोणमिति
निम्ननिखित त्रिकोणमितीय सूत्र वाराहमिहिर ने प्रतिपादित किये हैं-।
वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारणी को और अधिक परिशुद्धत बनाया।
अंकगणित
वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया।
संख्या सिद्धान्त
वराहमिहिर 'संख्या-सिद्धान्त' नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता हैं जिसके बारे में बहुत कम ज्ञात है। इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाया है। प्राप्त ग्रन्थ के बारे में पुराविदों का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है।
क्रमचय-संचय
वराहमिहिर ने वर्तमान समय में पास्कल त्रिकोण (Pascal's triangle) के नाम से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की। इनका उपयोग वे द्विपद गुणाकों (binomial coefficients) की गणना के लिये करते थे।
बृहत्संहिता में सांयोजिकी (combinatorics) से सम्बन्धित यह श्लोक विद्यामान है-
- षोडशके द्रव्यगणे चतुर्विकल्पेन भिद्यमानानाम्।
- अष्टादश जायन्ते शतानि सहितानि विंशत्या॥
- (अर्थ: सोलह प्रकार के द्रव्य विद्यमान हों तो उनमें से किसी चार को मिलाकर कुल 1820 प्रकार के इत्र बनाए जा सकते हैं।
आधुनिक गणित की भाषा में कहें तो, 16C4 = (16 × 15 × 14 × 13) / (1 × 2 × 3 × 4) = 1,820
ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)।
ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।
ब्रह्मगुप्त जन्म ५९८ CE मृत्यु c.६७० CE क्षेत्र गणित,खगोल शास्त्र प्रसिद्धि - शून्य
- ब्रह्मगुप्त प्रमेय
- ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका
- ब्रह्मगुप्त का सूत्र
- चतुराहतवर्गसमै रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत।
- अव्यक्तवर्गरुयैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥
- अन्य सभी भारतीय गणिताचार्यों की तुलना में श्रीधराचार्य द्वारा प्रस्तुत शून्य की व्याख्या सर्वाधिक स्पष्ट है। उन्होने लिखा है-
- यदि किसी संख्या में शून्य जोड़ा जाता है तो योगफल उस संख्या के बराबर होता है; यदि किसी संख्या से शून्य घटाया जाता है तो परिणाम उस संख्या के बराबर ही होता है; यदि शून्य को किसी भी संख्या से गुणा किया जाता है तो गुणनफल शून्य ही होगा।
- उन्होने इस बारे में कुछ भी नहीं कहा है कि किसी संख्या में शून्य से भाग करने पर क्या होगा।
- किसी संख्या को भिन्न (fraction) द्वारा भाजित करने के लिये उन्होने बताया है कि उस संख्या में उस भिन्न के व्युत्क्रम (reciprocal) से गुणा कर देना चाहिये।
- उन्होने बीजगणित के व्यावहारिक उपयोगों के बारे में लिखा है और बीजगणित को अंकगणित से अलग किया।
- उन्होने गोले के आयतन का निम्नलिखित सूत्र दिया है-
- गोलव्यासघनार्धं स्वाष्टादशभागसंयुतं गणितम्। ( गोल व्यास घन अर्धं स्व अष्टादश भाग संयुतं गणितम् )
- अर्थात V = d3/2 + (d3/2) /18 = 19 d3/36
- गोले के आयतन π d3 / 6 से इसकी तुलना करने पर पता चलता है कि उन्होने पाई के स्थान पर 19/6 लिया है।
- वर्ग समीकरण का हल प्रस्तुत करने वाले आरम्भिक गणितज्ञों में श्रीधराचार्य का नाम अग्रणी है।
महावीर (गणितज्ञ)
- बहुभिर्प्रलापैः किम्, त्रयलोके सचराचरे। यद् किंचिद् वस्तु तत्सर्वम्, गणितेन् बिना न हि ॥
- (बहुत प्रलाप करने से क्या लाभ है ? इस चराचर जगत में जो कोई भी वस्तु है वह गणित के बिना नहीं है / उसको गणित के बिना नहीं समझा जा सकता)
बड़ी संख्याओं का नामकरण
संख्या
नाम संख्या नाम संख्या
नाम संख्या
नाम 101 दशं 102 शतं 103 सहस्रं 104 दशसहस्रं 105 लक्षं 106 दशलक्षं 107 कोटि 108 दशकोटि 109 शतकोटि 1010 अर्बुदं 1011 न्यर्बुदं 1012 खर्व्वं 1013 महाखर्व्वं 1014 पद्मं 1015 महापद्मं 1016 क्षोणि 1017 महाक्षोणि 1018 शंखं 1019 महाशंखं 1020 क्षिति 1021 महाक्षिति 1022 क्षोभं 1023 महाक्षोभं भिन्नों का वियोजन
महावीर ने किसी भिन्न को इकाई भिन्नों (यूनिट फ्रैक्शन्स) के योग के रूप में अभिव्यक्त करने की एक विधि दी। इसमें 'भागजाति' नामक विभाग (श्लोक ५५ से ९८ तक) में अनेक नियम दिये गये हैं। उनमें से कुछ ये हैं-
- १ को इकाई भिन्नों (unit fractions) के योग के रूप में अभिव्यक्त करने के लिये निम्नलिखित नियम दिया है- ( इसका उदाहरण श्लोक ७६ में दिया है।)
- रूपांशकराशीनां रूपाद्यास्त्रिगुणिता हराः क्रमशः।
- द्विद्वित्र्यंशाभ्यस्ताव आदिमचरमौ फले रूपे ॥ (गतिणसारसंग्रह कलासवर्ण ७५)
- अर्थ : जब फल (result) १ हो तो १ अंश वाले भिन्न, जिनके हर १ से शुरू होकर क्रमशः ३ से गुणित होते जायेंगे। प्रथम और अन्तिम को (क्रमशः) २ तथा २/३ से गुणा किया जायेगा।
भास्कराचार्यभास्कराचार्य जन्म १११४AD देहांत ११८५ AD मुख्य रुचियाँ बीजगणित,गणना,अंकगणित,त्रिकोणमिति मुख्य कृतियाँ सिद्धान्त शिरोमणि(लीलावती,बीजगणित)
,करानाकठुलाभास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं। आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्य ने उजागर कर दिया था। भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं’। उन्होने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। कथित रूप से यह उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माना जाता है।
भास्कराचार्य के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। कुछ–कुछ जानकारी उनके श्लोकों से मिलती हैं। निम्नलिखित श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य का जन्म विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था जो सहयाद्रि पहाड़ियों में स्थित है।
- आसीत सह्यकुलाचलाश्रितपुरे त्रैविद्यविद्वज्जने।
- नाना जज्जनधाम्नि विज्जडविडे शाण्डिल्यगोत्रोद्विजः॥
- श्रौतस्मार्तविचारसारचतुरो निःशेषविद्यानिधि।
- साधुर्नामवधिर्महेश्वरकृती दैवज्ञचूडामणि॥ (गोलाध्याये प्रश्नाध्यायः, श्लोक ६१)
इस श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के भट्ट ब्राह्मण थे और सह्याद्रि क्षेत्र के विज्जलविड नामक स्थान के निवासी थे। लेकिन विद्वान इस विज्जलविड ग्राम की भौगोलिक स्थिति का प्रामाणिक निर्धारण नहीं कर पाए हैं। डॉ. भाऊ दाजी (१८२२-१८७४ ई.) ने महाराष्ट्र के चालीसगाँव से लगभग १६ किलोमीटर दूर पाटण गाँव के एक मंदिर में एक शिलालेख की खोज की थी। इस शिलालेख के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर भट्ट था और उन्हीं से उन्होंने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी।
गोलाध्याय के प्रश्नाध्याय, श्लोक ५८ में भास्कराचार्य लिखते हैं :
- रसगुणपूर्णमही समशकनृपसमयेऽभवन्मोत्पत्तिः।
- रसगुणवर्षेण मया सिद्धान्तशिरोमणि रचितः॥
- (अर्थ : शक संवत १०३६ में मेरा जन्म हुआ और छत्तीस वर्ष की आयु में मैंने सिद्धान्तशिरोमणि की रचना की।)
अतः उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य का जन्म शक – संवत १०३६, अर्थात ईस्वी संख्या १११४ में हुआ था और उन्होंने ३६ वर्ष की आयु में शक संवत १०७२, अर्थात ईस्वी संख्या ११५० में लीलावती की रचना की थी।
भास्कराचार्य के देहान्त के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। उन्होंने अपने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना ६९ वर्ष की आयु में ११८३ ई. में की थी। इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी। उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि वे गणितज्ञ के साथ–साथ एक उच्च कोटि के कवि भी थे। अतः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न ऐसे महान गणितज्ञ के संबंध में अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि गणित एवं खगोलशास्त्र पर उनका योगदान अतुलनीय है। प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाले गणितज्ञ भास्कराचार्य के नाम से भारत ने 7 जून 1979 को छोड़े उपग्रह का नाम भास्कर-1 तथा 20 नवम्बर 1981 को छोड़े प्रथम और द्वितीय उपग्रह का नाम भास्कर-2 रखा।
नारायण पण्डित (गणितज्ञ)
नारायण पण्डित (१३४०–१४००) भारत के एक प्रमुख गणितज्ञ थे। उन्होंने १३५६ में गणितीय संक्रियाओं के बारे में गणित कौमुदी नामक पुस्तक लिखी। इसके फलस्वरुप क्रमचय-संचय (en:combinatorics) में कई विकास हुये। कुछ लोग नारायन पण्डित को केरलीय गणित सम्प्रदाय से सम्बद्ध मानते हैं किन्तु प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ चन्द्रकान्त राजू उन्हें बनारस-निवासी मानते हैं।
गणित की इतिहासकार किम प्लॉफ्कर लिखती हैं कि केरलीय गणित सम्प्रदाय के अलावा, भास्कर द्वितीय के बाद नारायण पण्डित के ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए गणित के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
नारायण पण्डित की दो मुख्य कृतियाँ है- पहली 'गणित कौमुदी' नामक अंकगणितीय प्रबन्ध तथा दूसरा 'बीजगणित वातांश' नामक बीजगणितीय प्रबन्ध। नारायण को भास्कर द्वितीय के लीलावती तथा कर्मप्रदीपिया (अथवा कर्मपद्धति) की विस्तृत टीका के लेखक के रूप में भी जाना जाता है। यद्यपि कर्मप्रदीपिका में मूल कार्य थोड़ा ही है, इसमें संख्याओं का वर्ग करने हेतु सात विभिन्न विधियाँ हैं। एक ऐसा योगदान जो कि पूर्णरुपेण लेखक का मौलिक है साथ ही बीजगणित में योगदान तथा माया वर्ग (मैजिक स्क्वायर)।
नारायण के अन्य मुख्य कार्यों में कई गणितीय विकास शामिल हैं, जैसे वर्गमूल का सन्निकट (लगभग) मान निकालने हेतु एक नियम, दूसरी ऑर्डर की अनिर्धार्य समीकरण में छानबीन, nq2 + 1 = p2 (पैल की समीकरण), इण्टरमी़डिएट उच्च ऑर्डर समीकरणों का हल, शून्य सहित गणितीय संक्रियायें, कई ज्यामितीय नियम तथा मायावी वर्ग उसके जैसी अन्य आकृतियों की चर्चा। इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि नारायण ने भास्कर द्वितीय के कार्य अवकल गणित (डिफरेन्शियल कैलकुलस) के विचार में भी थोड़ा योगदान दिया। नारायण ने चक्रीय चतुर्भुज के विषय में भी योगदान दिया। नारायण को किसी क्रम के सभी परमुटेशनों की सिस्टैमैटिक रूप से उत्पत्ति हेतु एक विधि विकसित करने का भी श्रेय दिया जाता है।
माधवाचार्य की ज्या सारणी
केरलीय गणित सम्प्रदाय के गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री माधवाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी में विभिन्न कोणों के ज्या के मानों की एक सारणी निर्मित की थी। इस सारणी में चौबीस कोणों के ज्या के मान दिए गये हैं। जिन कोणों के ज्या के मान दिए गये हैं वे हैं:
- 3.75°, 7.50°, 11.25°, ..., तथा 90.00° (अर्थात् 3.75°= 1/24 समकोण के पूर्णांक गुणक)।
यह सारणी एक संस्कृत श्लोक के रूप में है जिसमें संख्यात्मक मानों को कटपयादि पद्धति का उपयोग करके निरूपित किया गया है।
इससे सम्बन्धित माधव के मूल कार्य प्राप्त नहीं होते हैं किन्तु नीलकण्ठ सोमयाजि (1444–1544) के 'आर्यभटीयभाष्य' तथा शंकर वरियार (सन् 1500-1560) द्वारा रचित तन्त्रसंग्रह की 'युक्तिदीपिका/लघुवृत्ति' नामक टीका में भी हैं।
माधव द्वारा दिए गये ज्या मान
- 0.382683432363 radians = 180 / π × 0.382683432363 degrees = 21.926145564094 degrees.
- 21.926145564094 डिग्री = 1315 आर्कमिनट 34 आर्कसेकेण्ड 07 का सांठवाँ आर्कसेकेण्ड.
माधव द्वारा दिए गए मानों को समझने के लिए माना कोई कोण A है। O केन्द्र वाले तथा इकाई त्रिज्या के एक वृत्त की कल्पना कीजिए। माना वृत्त का चाप PQ केन्द्र O पर A कोण बनाता है। Q से OP पर QR लम्ब खींचिए। रेखाखण्ड RQ का मान ही Sin A का मान होगा।
उदाहरण के लिए माना A का मान 22.50° है। sin 22.50° का आधुनिक मान 0.382683432363 है तथा,
तथा
कटपयादि पद्धति में अंकों को उलटे क्रम में लिखा गया है। और 22.50° के संगत जो मान दिया गया है वह है : 70435131.
माधव की सारणी से कोणों के ज्या निकालना
किसी कोण A के लिए, माना
तो
सारणी की प्रत्येक पंक्ति आठ अंक देती है। माना कोण A के संगत अंक (बाएँ से दाहिने की तरफ पढ़िए) इस प्रकार हैं-
तो कटपयादि प्रणाली के अनुसार
श्रीनिवास रामानुजन्
श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) (22 दिसम्बर 1887 – 26 अप्रैल 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम् गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।
आरंभिक जीवनकाल
रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को भारत के दक्षिणी भूभाग में स्थित कोयम्बटूर के ईरोड नामके गांव में हुआ था। वह पारम्परिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनकी की माता का नाम कोमलताम्मल और इनके पिता का नाम श्रीनिवास अय्यंगर था। इनका बचपन मुख्यतः कुंभकोणम में बीता था जो कि अपने प्राचीन मंदिरों के लिए जाना जाता है। बचपन में रामानुजन का बौद्धिक विकास सामान्य बालकों जैसा नहीं था। यह तीन वर्ष की आयु तक बोलना भी नहीं सीख पाए थे। जब इतनी बड़ी आयु तक जब रामानुजन ने बोलना आरंभ नहीं किया तो सबको चिंता हुई कि कहीं यह गूंगे तो नहीं हैं। बाद के वर्षों में जब उन्होंने विद्यालय में प्रवेश लिया तो भी पारम्परिक शिक्षा में इनका कभी भी मन नहीं लगा। रामानुजन ने दस वर्षों की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सबसे अधिक अङ्क प्राप्त किया और आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल पहुंचे। रामानुजन को प्रश्न पूछना बहुत पसंद था। उनके प्रश्न अध्यापकों को कभी-कभी बहुत अटपटे लगते थे। जैसे कि-संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? रामानुजन का व्यवहार बड़ा ही मधुर था। इनका सामान्य से कुछ अधिक स्थूल शरीर और जिज्ञासा से चमकती आखें इन्हें एक अलग ही पहचान देती थीं। इनके सहपाठियों के अनुसार इनका व्यवहार इतना सौम्य था कि कोई इनसे नाराज हो ही नहीं सकता था। विद्यालय में इनकी प्रतिभा ने दूसरे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर छाप छोड़ना आरंभ कर दिया। इन्होंने स्कूल के समय में ही कालेज के स्तर के गणित को पढ़ लिया था। एक बार इनके विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के मापदंड रामानुजन के लिए लागू नहीं होते हैं। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और आगे कालेज की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिला।
आगे एक परेशानी आई। रामानुजन का गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक की वे इतिहास, जीव विज्ञान की कक्षाओं में भी गणित के प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित को छोड़ कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति खराब और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। कुछ समय बाद 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए। और इसी के साथ इनके पारंपरिक शिक्षा की इतिश्री हो गई।औपचारिक शिक्षा की समाप्ति और संघर्ष का समय
विद्यालय छोड़ने के बाद का पांच वर्षों का समय इनके लिए बहुत हताशा भरा था। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। चारों तरफ भयंकर गरीबी थी। ऐसे समय में रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफेसर के साथ काम करने का मौका। बस उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उन्हें कर्तव्य मार्ग पर चलने के लिए सदैव प्रेरित किया। नामगिरी देवी रामानुजन के परिवार की ईष्ट देवी थीं। उनके प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें कहीं रुकने नहीं दिया और वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गणित के अपने शोध को चलाते रहे। इस समय रामानुजन को ट्यूशन से कुल पांच रूपये मासिक मिलते थे और इसी में गुजारा होता था। रामानुजन का यह जीवन काल बहुत कष्ट और दुःख से भरा था। इन्हें हमेशा अपने भरण-पोषण के लिए और अपनी शिक्षा को जारी रखने के लिए इधर उधर भटकना पड़ा और अनेक लोगों से असफल याचना भी करनी पड़ी।
विवाह और गणित साधना
वर्ष 1908 में इनके माता पिता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। विवाह हो जाने के बाद अब इनके लिए सब कुछ भूल कर गणित में डूबना संभव नहीं था। अतः वे नौकरी की तलाश में मद्रास आए। बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण न होने की वजह से इन्हें नौकरी नहीं मिली और उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह गिर गया। अब डॉक्टर की सलाह पर इन्हें वापस अपने घर कुंभकोणम लौटना पड़ा। बीमारी से ठीक होने के बाद वे वापस मद्रास आए और फिर से नौकरी की तलाश शुरू कर दी। ये जब भी किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे। इस रजिस्टर में इनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। इसी समय किसी के कहने पर रामानुजन वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी श्री रामचंद्र राव से कह कर इनके लिए 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध भी कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र प्रकाशित किया। शोध पत्र का शीर्षक था "बरनौली संख्याओं के कुछ गुण” और यह शोध पत्र जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था। यहां एक साल पूरा होने पर इन्होने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी की। सौभाग्य से इस नौकरी में काम का बोझ कुछ ज्यादा नहीं था और यहां इन्हें अपने गणित के लिए पर्याप्त समय मिलता था। यहां पर रामानुजन रात भर जाग कर नए-नए गणित के सूत्र लिखा करते थे और फिर थोड़ी देर तक आराम कर के फिर दफ्तर के लिए निकल जाते थे। रामानुजन गणित के शोधों को स्लेट पर लिखते थे। और बाद में उसे एक रजिस्टर में लिख लेते थे। रात को रामानुजन के स्लेट और खड़िए की आवाज के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की नींद चौपट हो जाती थी।
प्रोफेसर हार्डी के साथ पत्रव्यावहार
इस समय भारतीय और पश्चिमी रहन सहन में एक बड़ी दूरी थी और इस वजह से सामान्यतः भारतीयों को अंग्रेज वैज्ञानिकों के सामने अपने बातों को प्रस्तुत करने में काफी संकोच होता था। इधर स्थिति कुछ ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। इस समय रामानुजन के पुराने शुभचिंतक इनके काम आए और इन लोगों ने रामानुजन द्वारा किए गए कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। पर यहां इन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिली लेकिन एक लाभ यह हुआ कि लोग रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे थे। इसी समय रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के ही प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक थे। और अपने सख्त स्वभाव और अनुशासन प्रियता के कारण जाने जाते थे। प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य को पढ़ने के बाद रामानुजन ने बताया कि उन्होने प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला है। अब रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। अब यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस तरह से एक जौहरी हीरे की पहचान करता है और उसे तराश कर चमका देता है, रामानुजन के जीवन में वैसा ही कुछ स्थान प्रोफेसर हार्डी का है। प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा और जीवन दर्शन के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया। प्रोफेसर हार्डी ने उस समय के विभिन्न प्रतिभाशाली व्यक्तियों को 100 के पैमाने पर आंका था। अधिकांश गणितज्ञों को उन्होने 100 में 35 अंक दिए और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को 60 अंक दिए। लेकिन उन्होंने रामानुजन को 100 में पूरे 100 अंक दिए थे।
आरंभ में रामानुजन ने जब अपने किए गए शोधकार्य को प्रोफेसर हार्डी के पास भेजा तो पहले उन्हें भी पूरा समझ में नहीं आया। जब उन्होंने अपने मित्र गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है और इनके द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और उसमें आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। अतः उन्होने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया।
विदेश गमन
कुछ व्यक्तिगत कारणों और धन की कमी के कारण रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के कैंब्रिज के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। प्रोफेसर हार्डी को इससे निराशा हुई लेकिन उन्होनें किसी भी तरह से रामानुजन को वहां बुलाने का निश्चय किया। इसी समय रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय में शोध वृत्ति मिल गई थी जिससे उनका जीवन कुछ सरल हो गया और उनको शोधकार्य के लिए पूरा समय भी मिलने लगा था। इसी बीच एक लंबे पत्रव्यवहार के बाद धीरे-धीरे प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए सहमत कर लिया। प्रोफेसर हार्डी के प्रयासों से रामानुजन को कैंब्रिज जाने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल गई। रामानुजन ने इंग्लैण्ड जाने के पहले गणित के करीब 3000 से भी अधिक नये सूत्रों को अपनी नोटबुक में लिखा था।
रामानुजन ने लंदन की धरती पर कदम रखा। वहां प्रोफेसर हार्डी ने उनके लिए पहले से व्ववस्था की हुई थी अतः इन्हें कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। इंग्लैण्ड में रामानुजन को बस थोड़ी परेशानी थी और इसका कारण था उनका शर्मीला, शांत स्वभाव और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या। अपने पूरे इंग्लैण्ड प्रवास में वे अधिकांशतः अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इंग्लैण्ड की इस यात्रा से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर उच्चकोटि के शोधपत्र प्रकाशित किए। अपने एक विशेष शोध के कारण इन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली। लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन की शैली उनके अधिक अनुकूल नहीं थी और उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरों ने इसे क्षय रोग बताया। उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी और रोगी को सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन को भी कुछ दिनों तक वहां रहना पड़ा। वहां इस समय भी यह गणित के सूत्रों में नई नई कल्पनाएं किया करते थे।
रॉयल सोसाइटी की सदस्यता
इसके बाद वहां रामानुजन को रॉयल सोसाइटी का फेलो नामित किया गया। ऐसे समय में जब भारत गुलामी में जी रहा था तब एक अश्वेत व्यक्ति को रॉयल सोसाइटी की सदस्यता मिलना एक बहुत बड़ी बात थी। रॉयल सोसाइटी के पूरे इतिहास में इनसे कम आयु का कोई सदस्य आज तक नहीं हुआ है। पूरे भारत में उनके शुभचिंतकों ने उत्सव मनाया और सभाएं की। रॉयल सोसाइटी की सदस्यता के बाद यह ट्रिनीटी कॉलेज की फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय भी बने। अब ऐसा लग रहा था कि सब कुछ बहुत अच्छी जगह पर जा रहा है। लेकिन रामानुजन का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और अंत में डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें वापस भारत लौटना पड़ा। भारत आने पर इन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। और रामानुजन अध्यापन और शोध कार्य में पुनः रम गए।
स्वदेश आगमन
भारत लौटने पर भी स्वास्थ्य ने इनका साथ नहीं दिया और हालत गंभीर होती जा रही थी। इस बीमारी की दशा में भी इन्होने मॉक थीटा फंक्शन पर एक उच्च स्तरीय शोधपत्र लिखा। रामानुजन द्वारा प्रतिपादित इस फलन का उपयोग गणित ही नहीं बल्कि चिकित्साविज्ञान में कैंसर को समझने के लिए भी किया जाता है।
मृत्यु
इनका गिरता स्वास्थ्य सबके लिए चिंता का विषय बन गया और यहां तक की अब डॉक्टरों ने भीजवाब दे दिया था। अंत में रामानुजन के विदा की घड़ी आ ही गई। 26 अप्रैल1920 के प्रातः काल में वे अचेत हो गए और दोपहर होते होते उन्होने प्राण त्याग दिए। इस समय रामानुजन की आयु मात्र 33 वर्ष थी। इनका असमय निधन गणित जगत के लिए अपूरणीय क्षति था। पूरे देश विदेश में जिसने भी रामानुजन की मृत्यु का समाचार सुना वहीं स्तब्ध हो गया।
रामानुजन की कार्यशैली और शोध
रामानुजन और इनके द्वारा किए गए अधिकांश कार्य अभी भी वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली बने हुए हैं। एक बहुत ही सामान्य परिवार में जन्म ले कर पूरे विश्व को आश्चर्यचकित करने की अपनी इस यात्रा में इन्होने भारत को अपूर्व गौरव प्रदान किया। इनका उनका वह पुराना रजिस्टर जिस पर वे अपने प्रमेय और सूत्रों को लिखा करते थे 1976 में अचानक ट्रिनीटी कॉलेज के पुस्तकालय में मिला। करीब एक सौ पन्नों का यह रजिस्टर आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बना हुआ है। इस रजिस्टर को बाद में रामानुजन की नोट बुक के नाम से जाना गया। मुंबई के टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान द्वारा इसका प्रकाशन भी किया गया है। रामानुजन के शोधों की तरह उनके गणित में काम करने की शैली भी विचित्र थी। वे कभी कभी आधी रात को सोते से जाग कर स्लेट पर गणित से सूत्र लिखने लगते थे और फिर सो जाते थे। इस तरह ऐसा लगता था कि वे सपने में भी गणित के प्रश्न हल कर रहे हों। रामानुजन के नाम के साथ ही उनकी कुलदेवी का भी नाम लिया जाता है। इन्होने शून्य और अनन्त को हमेशा ध्यान में रखा और इसके अंतर्सम्बन्धों को समझाने के लिए गणित के सूत्रों का सहारा लिया। रामानुजन के कार्य करने की एक विशेषता थी। पहले वे गणित का कोई नया सूत्र या प्रमेंय पहले लिख देते थे लेकिन उसकी उपपत्ति पर उतना ध्यान नहीं देते थे। इसके बारे में पूछे जाने पर वे कहते थे कि यह सूत्र उन्हें नामगिरी देवी की कृपा से प्राप्त हुए हैं। रामानुजन का आध्यात्म के प्रति विश्वास इतना गहरा था कि वे अपने गणित के क्षेत्र में किये गए किसी भी कार्य को आध्यात्म का ही एक अंग मानते थे। वे धर्म और आध्यात्म में केवल विश्वास ही नहीं रखते थे बल्कि उसे तार्किक रूप से प्रस्तुत भी करते थे। वे कहते थे कि "मेरे लिए गणित के उस सूत्र का कोई मतलब नहीं है जिससे मुझे आध्यात्मिक विचार न मिलते हों।”
गणितीय कार्य एवं उपलब्धियाँ
रामानुजन ने इंग्लैण्ड में पाँच वर्षों तक मुख्यतः संख्या सिद्धान्त के क्षेत्र में काम किया।
सूत्र
रामानुजन् ने निम्नलिखित सूत्र प्रतिपादित किया-
इस सूत्र की विशेषता यह है कि यह गणित के दो सबसे प्रसिद्ध नियतांकों ('पाई' तथा 'ई') का सम्बन्ध एक अनन्त सतत भिन्न के माध्यम से व्यक्त करता है।
पाई के लिये उन्होने एक दूसरा सूत्र भी (सन् १९१० में) दिया था-
रामानुजन संख्याएँ
'रामानुजन संख्या' उस प्राकृतिक संख्या को कहते हैं जिसे दो अलग-अलग प्रकार से दो संख्याओं के घनों के योग द्वारा निरूपित किया जा सकता है।
उदाहरण - .
इसी प्रकार,
अतः 1729, 4104, 20683, 39312, 40033 आदि रामानुजन संख्याएं हैं।
भारतीकृष्ण तीर्थ
भारती कृष्णतीर्थ जी महाराज (14 मार्च 1884 - 2 फ़रवरी 1960) जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य थे। शास्त्रोक्त अष्टादश विद्याओं के ज्ञाता, अनेक भाषाओं के प्रकांड पंडित तथा दर्शन के अध्येता पुरी के शंकराचार्य भारती कृष्णतीर्थ जी महाराज ने वैदिक गणित की खोज कर समस्त विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया था। वे एक ऐसे अनूठे धर्माचार्य थे जिन्होंने शिक्षा के प्रसार से लेकर स्वदेशी, स्वाधीनता तथा सामाजिक क्रांति में अनूठा योगदान कर पूरे संसार में ख्याति अर्जित की थी।
परिचय
14 मार्च 1884 को तिरुन्निवल्ली में डिप्टी कलेक्टर पी. नृसिंह शास्त्री के पुत्र के रूप में जन्में वेंकटरमण जन्मजात असाधारण प्रतिभा के स्वामी थे। उन्होंने सन् 1904 में एक साथ सात विषयों में एम.ए. किया। साहित्य, भूगोल, इतिहास, संगीत, गणित, ज्योतिष जैसे विषयों में उनकी गहरी पैठ थी।
जिन दिनों वे बड़ौदा कॉलेज में विज्ञान तथा गणित के प्राध्यापक थे, उसी कॉलेज में महर्षि अरविंद दर्शनशास्त्र का अध्यापन करते थे। दोनों संपर्क में आए तथा राष्ट्रीय चेतना जागृत कर देश को स्वाधीन कराने के लिए योजना बनाने लगे। सन् 1905 में बंगाल में , आंदोलन ने जोर पकड़ा। वेंकटरमण शास्त्री तथा महर्षि अरविंद दोनों ने कलकत्ता पहुंचकर उसे गति प्रदान की। उनके ओजस्वी तथा तर्कपूर्ण भाषणों से बंगाल का प्रशासन कांप उठा था। वेंकटरमण शास्त्री की रुचि आध्यात्म की ओर बढ़ी तथा उन्होंने शृंगेरी के शंकराचार्य सच्चिदानंद शिवाभिनव नृसिंह सरस्वतीजी महाराज के सानिध्य में कठोरतम योग साधना की। गोवर्धनपीठ, पुरी के शंकराचार्य मधुसूदन तीर्थ ने उन्हें संन्यास दीक्षा देकर वेंकटरमण की जगह भारती कृष्णतीर्थ नामकरण कर दिया।
सन् 1921 में उन्हें शंकराचार्य पद पर अभिषिक्त किया गया। उसी वर्ष उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति की कार्यकारिणी का सदस्य मनोनीत किया गया। स्वामीजी ने राजधर्म और प्रजाधर्म विषय पर एक भाषण दिया जिसे सरकार ने राजद्रोह के लिए भड़काने का अपराध बताकर उन्हें गिरफ्तार कर कराची की जेल में बंद कर दिया। बाद में स्वामीजी कांग्रेस के चर्चित अली बंधुओं के साथ बिहार की जेल में भी रहे। कारागार के एकांतवास में ही स्वामीजी ने अथर्ववेद के सोलह सूत्रों के आधार पर गणित की अनेक प्रवृत्तियों का समाधान एवं अनुसंधान किया। वे बीजगणित, त्रिकोणमिति आदि गणितशास्त्र की जटिल उपपत्तियों का समाधान वेद में ढूढ़ने में सफल रहे। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अनेक विश्ववविद्यालयों में गणित पर व्याख्यान दिए। कुछ ही दिनों में देश-विदेश में उनकी खोज की चर्चा होने लगी।
स्वामीजी ने अंगरेजी में लगभग पांच हजार पृष्ठों का एक वृहद ग्रंथ ‘वंडर्स ऑफ वैदिक मैथेमेटिक्स’ लिखा। स्वामीजी के इस ग्रंथ का वैदिक गणित के नाम से हिंदी अनुवाद किया गया। स्वामी जी ने वैदिक गणित के अलावा ब्रह्मासूत्र भाष्यम, धर्म विधान तथा अन्य अनेक ग्रंथों का भी सृजन किया। ब्रह्मासूत्र के तीन खंडों का प्रकाशन कलकत्ता विश्वविद्यालय ने किया। सन् 1953 में उन्होंने विश्वपुनर्निर्माण संघ की स्थापना की। उनका मत था कि आध्यात्मिक मूल्यों के माध्यम से ही विश्वशांति स्थापित की जा सकती है।
स्वामी भारती कृष्णतीर्थ आ शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित मठों के शंकराचार्य की शृंखला में एक ऐसे अनूठे धर्माचार्य थे। जिनके व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रतिभा तथा विभिन्न विधाओं का अनूठा संगम था। अनूठे ज्ञान से मंडित होने के बावजूद वे परम विरक्त तथा परमहंस कोटि के संन्यासी थे। वे अस्वस्थ हुए-उनके भक्तों की इच्छा थी कि उन्हें अमेरिका ले जाकर चिकित्सा कराई जाए। उन्होंने 2 फ़रवरी 1960 को निर्वाण प्राप्त करने से एक सप्ताह पूर्व ही कह दिया था कि संन्यासी को नश्वर शरीर की चिंता नहीं करनी चाहिए, जब भगवान का बुलावा आए उसे परलोक गमन के लिए तैयार रहना चाहिए।
दत्तात्रय रामचन्द्र कर्पेकर
- दत्तात्रय रामचंद्र कापरेकर (१९०५–१९८६) एक भारतीय गणितज्ञ थे। उन्होने संख्या सिद्धान्त के क्षेत्र में अनेक योगदान किया, जिनमें से कर्पेकर संख्या तथा कर्पेकर स्थिरांक प्रमुख हैं। यद्यपि उन्होने औपचारिक रूप से परास्नातक प्रशिक्षण नहीं पाया था और एक विद्यालय में अध्यापन करते थे, फिर भी उन्होने व्यापक रूप से शोधपत्र प्रकाशन किए और मनोरंजक गणित के क्षेत्र में विख्यात हुए।
जीवन परिचय
दत्तात्रय रामचन्द्र कर्पेकर का जन्म 17 जनवरी, 1905 को महाराष्ट्र के डहाणू में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा थाणे और पुणे में, तथा स्नातक की शिक्षा मुम्बई विश्वविद्यालय से हुई थी। उन्होंने गणित या किसी अन्य विषय में स्नातकोत्तर शिक्षा नहीं पायी थी और नासिक में एक विद्यालय में अध्यापक थे। गणित में उच्च शिक्षा न प्राप्त करने के बावजूद उन्होंने संख्या सिद्धान्त पर काम किया।
कुछ स्थिरांक और बहुत सी संख्यायें उनके नाम से जाने जाते हैं। वे मनोरंजात्मक गणित के क्षेत्र में जाने माने व्यक्ति थे। उच्च शिक्षा न प्राप्त करने के कारण भारत में गणितज्ञों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिये था। उनके शोधपत्र भी निम्न श्रेणी के गणित की पत्रिकाओं में छपते थे। वे गणित के सम्मेलनों में अपने पैसे से जाते थे और अंको पर व्याख्यान देते थे। उन्हें भारत में सम्मान तब मिला मार्टिन गार्डनर ने साईंटिफिक अमेरिकन के मार्च, 1975 अंक में, उनके बारे में लिखा।
कर्पेकर स्थिरांक
संख्या 6174 को कर्पेकर स्थिरांक (Kaprekar constant) कहते हैं। इस संख्या का एक विशेष गुण है जिसका पता कापरेकर ने लगाया था। इसलिये इसे कापरेकर स्थिरांक कहा जाता है।
- (१) चार अंक की कोई भी संख्या लीजिये जिसके दो अंक भिन्न हों।
- (२) संख्या के अंको को आरोही और अवरोही क्रम में लिखें ।इससे आपको दो संख्यायें मिलेंगी।
- (३) अब बड़ी संख्या को छोटी से घटाएँ।
जो संख्या मिले इस पर पुनः क्रम संख्या 2 तथा 3 वाली प्रक्रिया दोहराएँ। इस प्रक्रिया को 'कर्पेकर व्यवहार' कहते हैं। कुछ निश्चित चरणों के बाद आपको संख्या 6174 मिलेगी। इसके साथ 'कर्पेकर व्यवहार' अपनाने पर भी फिर यही संख्या मिलती है, इसीलिये इसे कर्पेकर स्थिरांक कहते हैं ।
उदाहरण- हमने संख्या ली 3141 । अब प्रक्रिया क्रमांक 2 को दोहराने पर ऐसे क्रम चलेगा-
- 4311 - 1134 = 3177
- 7731 - 1377 = 6354
- 6543 - 3456 = 3087
- 8730 - 0378 = 8352
- 8532 - 2358 = 6174
- 7641 - 1467 = 6174
कर्पेकर संख्या
ऐसी संख्या को कापरेकर संख्या कहते हैं जिसके वर्ग को दो ऐसे 'भागों' में विभाजित किया जा सके कि उन्हें जोड़कर हम पुनः प्रारम्भिक संख्या को प्राप्त कर सकें।
उदाहरण के तौर पर यदि हम ५५ की संख्या को लें तब
- ५५२ = ५५ x ५५ = ३०२५
- ३० + २५ = ५५
अतः ५५ एक कर्पेकर संख्या है। इस तरह के अन्य संख्याये हैं -
- १, ९, ४५, ५५, ९९, २९७, ७०३, ९९९, २२२३, २७२८, ४८७९, ४९५०, ५०५०, ५२९२, ७२७२, ७७७७, ९९९९, १७३४४, २२२२२, ३८९६२, ७७७७८, ८२६५६, ९५१२१, ९९९९९, १४२८५७, १४८१४९, १८१८१९, १८७११०, २०८४९५, ३१८६८२, ३२९९६७, ३५१३५२, ३५६६४३, ३९०३१३, ४६१५३९, ४६६८३०, ४९९५००, ५००५००, ५३३१७० आदि।
डेमलो संख्याएँ
1, 11, 111, 1111, आदि Repunit संख्याएँ हैं, अर्थात Repeated Unit संख्याएँ। इनके वर्ग को डेमेलो संख्या कहते हैं जिनका आविष्कार कर्पेकर ने किया था।
देखिए,
- 1² = 1
- 11² = 121
- 111² = 12321
- 1111² = 1234321
डेमलो संख्या के नामकरण की भी कहानी है। डेमलो (Demlo) कोई रेलवे स्टेशन है जहाँ उन्हें इस संख्या का विचार आया था।
हर्षद संख्या
हर्षद संख्याओ वे संख्याएँ हैं जो अपने अंको के योग से भाज्य होती हैं। काप्रेकर ने इनका आविष्कार किया था और इन्हे हर्षद संख्या अर्थात 'आनन्ददायक संख्या 'कहा था।
उदाहरण के लिये 12 एक हर्षद संख्या है क्योंकि यह संख्या 1 + 2 = 3 से भाज्य है।
शकुन्तला देवी
शकुंतला देवी
19 मई 2006 को शकुंतला देवीजन्म 4 नवम्बर 1929
बंगलौर, भारतमृत्यु अप्रैल 21, 2013 (उम्र 83)
बंगलौर, कर्नाटक, भारतमृत्यु का कारण श्वसन और हृदय की समस्या राष्ट्रीयता भारतीय शकुन्तला देवी (4 नवम्बर 1929 - 21 अप्रैल 2013) जिन्हें आम तौर पर "मानव कम्प्यूटर" के रूप में जाना जाता है, बचपन से ही अद्भुत प्रतिभा की धनी एवं मानसिक परिकलित्र (गणितज्ञ) थीं। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनका नाम 1982 में ‘गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में भी शामिल किया गया।
जीवन
शकुंतला देवी का जन्म भारत के बंगलौर नामक महानगर में एक धार्मिक कन्नड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
उनके ८४वें जन्मदिन पर ४ नवम्बर २०१३ को गूगल ने उनके सम्मान में उन्हें गूगल डूडल समर्पित किया।
पुस्तकें
शंकुतला देवी
जीवन परिचय
ब्रह्मगुप्त आबू पर्वत तथा लुणी नदी के बीच स्थित, भीनमाल नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम जिष्णु था। इनका जन्म शक संवत् ५२० में हुआ था। इन्होंने प्राचीन ब्रह्मपितामहसिद्धांत के आधार पर ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त तथा खण्डखाद्यक नामक करण ग्रंथ लिखे, जिनका अनुवाद अरबी भाषा में, अनुमानत: खलीफा मंसूर के समय, सिंदहिंद और अल अकरंद के नाम से हुआ। इनका एक अन्य ग्रंथ 'ध्यानग्रहोपदेश' नाम का भी है। इन ग्रंथों के कुछ परिणामों का विश्वगणित में अपूर्व स्थान है।
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के भीनमाल शहर मे ईस्वी सन् ५९८ मे हुआ था। इसी कारण उन्हें ' भिल्लमालाआचार्य ' के नाम से भी कई जगह उल्लेखित किया गया है। यह शहर तत्कालीन गुजरात प्रदेश की राजधानी तथा हर्षवर्धन साम्राज्य के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन माना जाता है।
गणितीय कार्य
'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक (negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ये नियम आज की समझ के बहुत करीब हैं। हाँ, एक अन्तर अवश्य है कि ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: ०/० = ०.
"ब्रह्मस्फुटसिद्धांत" के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। १२वां अध्याय, गणित, अंकगणितीय शृंखलाओं तथा ज्यामिति के बारे में है। १८वें अध्याय, कुट्टक (बीजगणित) में आर्यभट्ट के रैखिक अनिर्धार्य समीकरण (linear indeterminate equation, equations of the form ax − by = c) के हल की विधि की चर्चा है। (बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् ६२८ ई. में ‘कुट्टक गणित’ रखा।) ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों (Nx2 + 1 = y2) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाला वह प्रथम व्यक्ति था। उनके ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद ख़लीफ़ा अल-मंसूर (७१२-७७५ ईस्वी) ने बग़दाद की स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फ़ज़री ने इसका अरबी भाषा में अनुवाद किया।
ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त पाई (pi) (३.१४१५९२६५) का मान १० के वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, K y2 + 1 = x2, को भी हल करने का प्रयत्न किया।
ब्रह्मगुप्त का सूत्र
ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र:
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र:
जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है। हेरोन का सूत्र, जो एक त्रिभुज के क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है, इसका एक विशिष्ट रूप है।
श्रीधराचार्य
श्रीधराचार्य (जन्म : ७५० ई) प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ थे। इन्होंने शून्य की व्याख्या की तथा द्विघात समीकरण को हल करने सम्बन्धी सूत्र का प्रतिपादन किया।
उनके बारे में हमारी जानकारी बहुत ही अल्प है। उनके समय और स्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा अनुमान है कि उनका जीवनकाल ८७० ई से ९३० ई के बीच था; वे वर्तमान हुगली जिले में उत्पन्न हुए थे; उनके पिताजी का नाम बलदेवाचार्य और माताजी का नाम अच्चोका था।
कृतियाँ तथा योगदान
इन्होंने 750 ई. के लगभग दो प्रसिद्ध पुस्तकें, त्रिशतिका (इसे 'पाटीगणितसार' भी कहते हैं), पाटीगणित और गणितसार, लिखीं। इन्होंने बीजगणित के अनेक महत्वपूर्ण आविष्कार किए। वर्गात्मक समीकरण को पूर्ण वर्ग बनाकर हल करने का इनके द्वारा आविष्कृत नियम आज भी 'श्रीधर नियम' अथवा 'हिंदू नियम' के नाम से प्रचलित है।
'पाटीगणित, पाटीगणित सार और त्रिशतिका उनकी उपलब्ध रचनाएँ हैं जो मूलतः अंकगणित और क्षेत्र-व्यवहार से संबंधित हैं। भास्कराचार्य ने बीजगणित के अंत में - ब्रह्मगुप्त, श्रीधर और पद्मनाभ के बीजगणित को विस्तृत और व्यापक कहा है - :'ब्रह्माह्नयश्रीधरपद्मनाभबीजानि यस्मादतिविस्तृतानि'।
इससे प्रतीत होता है कि श्रीधर ने बीजगणित पर भी एक वृहद् ग्रन्थ की रचना की थी जो अब उपलब्ध नहीं है। भास्कर ने ही अपने बीजगणित में वर्ग समीकरणों के हल के लिए श्रीधर के नियम को उद्धृत किया है -
वर्ग समीकरण हल करने की श्रीधराचार्य विधि
ax2 + bx + c = 0
4a2x2 + 4abx + 4ac = 0 ; (4a से गुणा करने पर)
4a2x2 + 4abx + 4ac + b2 = 0 + b2 ; (दोनों पक्षों में b2 जोड़ने पर)
(4a2x2 + 4abx + b2) + 4ac = b2
(2ax + b)(2ax + b) + 4ac = b2
(2ax + b)2 = b2 - 4ac
(2ax + b)2 = (√D)2 ; (D = b2-4ac)
अतः x के दो मूल (रूट) निम्नलिखित हैं-
पहला मूल α = (-b - √(b2-4ac)) / 2a
दूसरा मूल β = (-b + √(b2-4ac)) / 2a
अर्थात्
महावीर (या महावीराचार्य) नौवीं शती के भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। वे गुलबर्ग के निवासी थे। वे जैन धर्म के अनुयायी थे। उन्होने क्रमचय-संचय (कम्बिनेटोरिक्स) पर बहुत उल्लेखनीय कार्य किये तथा विश्व में सबसे पहले क्रमचयों एवं संचयों (कंबिनेशन्स) की संख्या निकालने का सामान्यीकृत सूत्र प्रस्तुत किया। वे अमोघवर्ष प्रथम नामक महान राष्ट्रकूट राजा के आश्रय में रहे।
उन्होने गणितसारसंग्रह नामक गणित ग्रन्थ की रचना की जिसमें बीजगणित एवं ज्यामिति के बहुत से विषयों (टॉपिक्स) की चर्चा है। उनके इस ग्रंथ का पावुलूरि मल्लन ने तेलुगू में 'सारसंग्रह गणितम्' नाम से अनुवाद किया।
महावीर ने गणित के महत्व के बारे में कितनी महान बात कही है-